धधकती हवा में अग्निकण ऊपर उठते जाते हैं
फटे बादलों से लाल चिंगारियाँ धरती पर गिरती हैं
धुआँ फैलकर भूमि को काली चादर में ढक देता है
निर्जन राहों पर दबे पाँव बढ़ता हुआ भय फुसफुसाता है
पेड़ टूटकर अंतिम पीड़ा में काँपते बिखरते हैं
पक्षियों के सपने अंगारों में पिघलते जाते हैं
नदी शांत धारा में राख की लकीरें बहाती है
तपा हुआ रेत हर कदम पर चुभन छोड़ जाता है
चट्टानें फटकर अग्निकण चारों ओर उछालती हैं
गाँव अँधेरे में डूबकर मौन विलाप करता है
आँखों में बुझती चिंगारियों-सी नमी चमक उठती है
सर्व-सहाय धरती माँ सब कुछ सहकर शांति खोजती है
जी आर कवियुर
10 12 2025
(कनाडा, टोरंटो)
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