भूमिका
आज एक पारिवारिक दोस्त के घर डिनर पर पहुँचा तो बड़े प्यार से गरम-गरम छोले परोसे गए। बातों-ही-बातों में मज़ाक शुरू हुआ—"हम हैं बोले तो खाते हैं छोले!"
फिर सोच आया कि इस स्वाद, इस दोस्ती और इस मीठी मेहमाननवाज़ी पर एक छोटी-सी मज़ेदार कविता ही लिख डालूँ।
डायबिटीज़ हो, कैलोरीज़ हों या डाइट चार्ट—दोस्ती के सामने सब हार जाते हैं!
उसी पल में जन्मी यह हल्की-फुल्की शरारती कविता…
छोलों वाली शाम, दोस्ती वाला स्वाद (कविता)
हम हैं बोले तो खाते हैं छोले,
न चाहें तो भी खाएँ गरम-गरम लड्डू के गोले।
डायबिटीज़ भी कहे—“रुक जाओ”—पर हम बोले,
तेरी दोस्ती में यार, मीठे भी झट से घोले।
गलियों में फिरते गुनगुनाते हम खोले,
मज़े से चाट चटोरी दिल में झोले-झोले।
पूड़ी के संग हलवा हो तो मन डोले,
कचौरी देख दिल बोले—बस दे दो दो ले!
भटूरे आए तो कदम पल में ही तोले,
खुशियों के किस्से हर कौर में हम घोले।
ज़िंदगी का स्वाद ऐसे ही हम घोले,
आख़िर में हस्ताक्षर—आपका अपना जी आर।
जी आर कवियुर
०३ १२ २०२५
(कनाडा , टोरंटो)
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