जहाँ शब्द मुड़कर बहते हैं,
निर्दोष दबता है, कंधों पर बोझ के साथ।
जो संदेह बोते और उपहास फैलाते हैं,
सच को ढक देते हैं छल की परत में।
जब आँखें नम होती हैं, दोष बदल जाते हैं,
जिम्मेदारी गायब हो जाती है, समस्याएँ बढ़ती हैं।
स्वार्थ से बने झूठे निर्णय।
छाया की तरह आता अन्याय,
थका हुआ मन पूछता है वही सवाल—
क्या दोष मढ़ना न्याय को हराता है?
जी आर कवियुर
04 12 2025
(कनाडा, टोरंटो)
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