Monday, November 1, 2010

दिल के आईने

 
हम तेरी परछाइयो के सहारे जीते हैं.
 
हँसती रहती हो बंद पलकों की नजरो पे.
 
खुलने से टूट गया सापनो का महल.
 
न रही तुम भी मेरे अरमानो के बाँहों में सनम.
 
तेरे लिए गता हूँ सरगम हरगम के आंसू पे.
 
सुनी हे गली और चौबारों पे हर कली तेरे लिए.
 
दिल का किवाड़ खुला रखा हूँ.
 
अंगॆठी की लौ पे सनम.
 
फितरत हे खामोशियो की डगर पर.
 
रुसवा  न करना मुस्कुराहतो की अहठो  से.
 
हटूंगा नहीं तेरी अनगिनत बिन्तियो से.
 
न देख पाई मुझको भी.
 
लगी जो चोट दिल के आईने पे सनम. 

Saturday, October 30, 2010

तन्हाई- (सन २०००-२००१ क़तर में लिखी गयी कविता ) जी आर कवियूर

क़तर     में    आके
खतरा जो मोल लिया 
खबर क्या बताये,
बेखबर हो गया खत्मसा हो गया
शांति रूठ  गई
क्षमा और शमा भी बुझ  गई 
रोशनी    की रंगत के लिए 
रोशन  गुल होकर भी
समय भी साथ न रहा  
संजोता करू कैसे  
उनकी याद में जी रहा हूँ
उजड़ा हुआ  इस दुनियाँ में
आशा भी निराशा हो गई
थे कभी वे सब अपने 
अब बेगाने हो गऎ    

Tuesday, October 19, 2010

शराब और शबाब .. कविता: जी आर कवियूर

मैखाने में मिले तो आप से

तुम पे उतरे





जामसे जाम मिले तो तुम से तू में उतरे




पूरी हुवी जब पेखानेसे निकले तो फिर आपे उतरे



क्या समझ में आया ये है शराब



कली खिली महकी मनमोह उठी



चन्द वक्त गुजारी तो मुर्जा गई

और बू उठी यह है शबाब समझ ये जनाब

Monday, October 18, 2010

सात फेरे वाली कहानी कविता : जी आर कवियूर

शादी
बरबादी
दर आधी
दे आदी
पाव भारी
आबादी
निन्द आधी
कर वानी हे और शादी
कर से भारी
यह हे संगट वाली
न करियो तो जिन्दगी अदुरी