जब घड़ी पीछे मुड़ी उस रात,
जैसे वक़्त ने ली हो सौगात।
एक पल खोया, एक पाया,
फिर भी दिल ने कुछ न भुलाया।
दीप जले कुछ देर ज़्यादा,
साए बढ़े, हुआ सब आधा।
सपनों ने करवट बदली हल्की,
यादें लौटीं, धड़कन थमी।
पर वक़्त कभी लौटता नहीं,
भोर वही सोई, जगती नहीं।
एक घंटा पाया, सबने कहा—
पर मन का वक़्त कौन रुका?
जी आर कवियुर
(कनाडा, टोरंटो)
04 11 2025
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