Monday, November 3, 2025

“दिव्य सान्निध्य में”

“दिव्य सान्निध्य में”

निशब्द जंगलों में, नदियों के मृदु प्रवाह में,
प्रभात सूर्य में और संध्या की मृदु रोशनी में,
ध्वनि रहित वहाँ का सान्निध्य फुसफुसाता है,
हर हृदय में, हर सांस में व्याप्त है।

पर्वत झुकते हैं, महासागर वहाँ की शक्ति में चमकते हैं,
तारे मृदुता से आकाश में नृत्य करते हैं,
सारी सृष्टि दिव्य संगीत में गाती है,
हर आत्मा वहाँ के पवित्र चिन्ह में बंधी है।

सर्वशक्तिमान, अनंत, महाशक्तिशाली,
सृजनकर्ता, जगत का उत्पत्तिकार,
विनाशक जो पुराने को मिटा नए के लिए,
उसके शाश्वत प्रकाश में सभी हृदय झुकते हैं।

जी आर कवियुर 
03 11 2025
(कनाडा, टोरंटो)

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