Tuesday, November 18, 2025

रुके वक़्त का बह जाना” (ग़ज़ल)

रुके वक़्त का बह जाना” (ग़ज़ल)

किसी बहाने बना के तुम यूँ ही चले आना,
मिरी नज़र में छलकता है अब भी वही फ़साना(2)

हवा में आज भी महकते हैं तेरे क़दमों के निशाँ,
उसी गली में मेरा दिल रख गया अपना ठिकाना(2)

तुम्हारे बाद भी ये शामें वैसी ही उतरती हैं,
चिराग़-ए-याद से जारी है रात का जगमगाना(2)

अजब ये दर्द है जो तुमसे होकर ही सँवरता है,
तुम्हीं से बंधा है मेरी रूह का हर तराना(2)

ज़रा-सी बात पे आँखें भिगोती है तन्हाई,
कोई सदा सी उठती है—तुम्हें फिर से बुलाना(2)

जी आर के दिल में अब भी तुम्हारा ही एक घर है,
तुम आना कभी—कि रुके वक़्त का बह जाना(2)


जी आर कवियुर 
18 11 2025
(कनाडा, टोरंटो)

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