कविता: दर्दनाक पलों का कुल योग
प्रस्तावना
यह कविता कनाडा के टोरंटो में मिराबेला बिल्डिंग की बारहवीं मंज़िल से एक ठंडी और खामोश रात में देखे गए एक पल से पैदा हुई है।
आधी रात के आस-पास, बेडरूम की खिड़की के बाहर शहर का शांत नज़ारा अचानक तब बिखर गया जब नीचे सड़क पर एक एक्सीडेंट हुआ।
दूर से बजने वाले सायरन, चमकती इमरजेंसी लाइटें, और मुड़ी हुई मेटल को देखकर डर और दुख दोनों महसूस हुए।
नींद उड़ गई, और दिल पर एक बोझ सा महसूस हुआ जिसे शब्द उठाने की कोशिश कर रहे थे।
उस नाजुक पल में — अंधेरे और उम्मीद के बीच, सदमे और खामोशी के बीच — ये लाइनें निकलीं, जो रात की कांपती हुई शांति और उसके बाद हुई शांत प्रार्थना को दिखाती हैं।
कविता: दर्दनाक पलों का कुल योग
रात की ख़ामोशी टूटती गई,
रोशनी की लकीरें दिल को छूते ही,
सड़कों पर लोहा बिखरकर रोया।
खिड़की के बाहर कंपन उठते ही,
गहरी पीड़ा नीचे फैलती गई,
अँधेरा डर से भरता गया।
परछाइयाँ चारों ओर काँपती रहीं,
हवा में सिसकियाँ खोती गईं,
बिजली जैसी आँखें चमक उठीं।
नींद का पल दूर खिसकता गया,
सीने में भारी साँस उतर आई,
दुआ बनकर उम्मीद उभर आई।
जी आर कवियुर
23 11 2025/ 12:00 रात्रि
(कनाडा, टोरंटो)

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