सूरज सोता नहीं, सूरज सोता नहीं,
चाँद और तारों की पहरा यहाँ है।
जब इंसान सोते हैं, दुनिया से अनजान।
हवा की आवाज़ हँसी की तरह हल्की,
रेत भरी राहों में बहते शब्द,
रहस्यमय खुशबू रात में उठती है।
नदी की नीली सतह आकाश को दिखाती है,
छिपे गीत, अनदेखे सपने,
प्रकृति का दिल मौन में सुनता है।
पूर्णिमा की चाँदनी सबको कोमलता से छूती है,
पेड़ों के बीच छोटे पंख उड़ते हैं,
रात का संगीत हर दिल में बजता है।
छायाओं की ताल में यादें गिरती हैं,
आशा की रौशनी आँखों में चमकती है,
अनिद्रा की इस रात में, जीवन स्वयं गाता है।
जी आर कवियुर
03 10 2025
( कनाडा, टोरंटो)
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