Saturday, October 25, 2025

आख़िरी धुआँ

 आख़िरी धुआँ 



धुआँ आख़िरी, कहीं खो गया,

गिलास का क़तरा भी गिर पड़ा।

निगाहें भटकीं शहर की रौशनी में,

कभी जो सपने थे, अब धुंधला पड़ा।


बारिश सी गूँजें मन में उठीं,

चाँदी सी रोशनी सिखाए नई राहें चलना।

हवा से पूछा उसने ख़ामोशी में,

वक़्त कहाँ गया, कौन सुना?


पुरानी आग, नया सर्दपन — दोनों जलते हैं,

हर नाम में वक़्त की साँस बसती है।

कदम बहकते हैं बदलती राहों में,

ख़ामोशी फिर वही तराना कहती है।


जी आर कवियुर 

25 10 20

25

(कनाडा, टोरंटो)

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