Thursday, October 9, 2025

“डाक दिवस”

“डाक दिवस”

स्याही में सोई यादें फिर से जाग उठीं,
हाथों की लिखावट में मिठास थी कभी।

गली-गली मुस्कान लिए आता था डाकिया,
हर दिल उसे अपनेपन से देखता था तभी।

कागज़ पे लिखे शब्द गाने लगते थे,
दूरियों को मिटाकर रिश्ते बनते थे।

समय की धारा में बदल गया ये ज़माना,
अब उंगलियों पे घूमता है सारा जमाना।

पुराने ख़त अब भी यादों में महकते हैं,
हर दिल में आज भी डाक दिवस खिलते हैं।

जी आर कवियुर 
09 10 2025
(कनाडा, टोरंटो)


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