मैं, आपका दादाजी, कभी बन गया
हाथी, घोड़ा,
चरवाहा, जोकर,
सिर्फ खेलने के लिए, मेरे नन्हे साथी के साथ।
मैंने तुम्हें अपनी पीठ पर उठाया हाथी की तरह,
खेतों में दौड़ा घोड़े की तरह,
कल्पनाओं के भेड़ियों का पीछा किया,
जादुई गीत गाए,
सूरज और तारों के नीचे हम हँसते रहे।
अब सीमाएँ मद्धम और शांत पड़ी हैं,
जिस दुनिया को मैंने बनाई, वह दूर चली गई।
खिलखिलाती चेहरा अब झुर्रियों भरा,
फिर भी यादें मेरे बिस्तर के चारों ओर नाचती हैं।
मेरी आँखें अब आकाश की ओर नहीं उठतीं,
नदी और खेत दूर हैं।
कोई छोटे हाथ मुझे नहीं पकड़ते,
सिर्फ परछाइयाँ ठहरी हैं,
और मौन ही भर गया है।
हाथ में एक पुराना घड़ी
दिनों से शांत है।
मन में कोई धीरे पुकारता है —
"दादाजी, उठो…"
लेकिन मैं आँखें खोलकर बादलों की ओर देखता हूँ,
धीरे मुस्कान के साथ, हल्की साँस —
जैसे बचपन के खेलों की गूँज हो,
मैं धीरे-धीरे चुप्पी में चला जाता हूँ,
सनातन शांति की ओर।
जी आर कवियुर
21 10 2025
(कनाडा, टोरंटो)
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