ये शाम ढलने को आई है,
यादों का क़ाफ़िला चलता रहा है।
हर एक ख्वाब अधूरा सा रह गया,
निगाहें मगर रास्ता तकती रही हैं।
सुकून दिल को न आया किसी तरह,
उलझनों में मोहब्बत सुलगती रही है।
हवा में ग़म का धुआँ सा घुला हुआ,
मगर आँखें चुपचाप बरसती रही हैं।
तेरा नाम लबों पर आता गया यूँ,
दुआ बनके हर सांस सजती रही है।
जी आर के दिल से निकली ये दास्ताँ,
तेरी याद ही मेरी ग़ज़ल बनती रही है।
जी आर कवियुर
25 09 2025
(कनाडा, टोरंटो)
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