रात ढलने को है,
चाँदनी भी मुस्कुराने लगी है,
बागों में बुलबुलें गीत गाने लगी हैं,
फूलों में भी खुशबू छाने लगी है।
सपनों की लौ तुम क्यों अब तक बुझी नहीं,
रात की पलकें भी तुम्हें ही तकती हैं।
मौन प्रेम की ग़ज़ल, क्या तुम सुन पाओगे?
चाँदनी की रौशनी में चुपके से बहती है।
कितने बरस बीते तुम्हारे प्यार की प्यास में,
परछाईं बनकर आँखों में बसते हो क्या?
पावन दिनों में तुम आओ इस संध्या में,
मेरे विरह का नीला रंग तुम छू जाओ।
तेरी यादों में "जी.आर." खोया हुआ है,
तेरी खुशबू से ही ये दिल महकता है।
जी आर कवियूर
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