एक कवि कहता है, धरती स्वतंत्र,
न ताला, न बंधन, न कोई सीमा।
पहाड़ उठते, नदियाँ बहतीं,
सांस लेने वालों के लिए सब उपहार।
टोरंटो झील शांत जल में चमके,
हंस तैरें सपनों की तरह थमे।
कोई अकेला इसका मालिक नहीं,
यह रेत की तरह सबमें बही।
पक्षी, मानव और वृक्ष मिलकर,
आकाश बाँटें ऋतु के संग।
कोमल पर दृढ़ स्वर गूंजता है,
“यह धरती सबकी है।”
जी आर कवियुर
31 08 2025
( कनाडा, टोरंटो)
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