भोर की सांकल में झींगुरों की तान,
ओस की बूँदें पत्तों पर थम गईं।
फूल की मुस्कान के पीछे
चुपचाप एक वेदना बिखर गई।
बेमेल सी हवा ढूंढती रही उत्तर,
रंग बदलती यादों में भटकती रही।
कली की थरथराहट में
एक धुंधली सी छाया बन कर उभरी शून्यता।
आकाश में डूबी पीड़ा की नमी
तन्हा तटों की ओर बह चली।
बरसती बूँदों में मन का छोर,
हर कतरे में सहारा ढूँढता रहा।
समय के पार ठहरी उस भावना में
धूप के बदलते रंगों में रूप मिला।
काल के स्पर्श ने भले दूर किया हो,
गीतों में एक छाया बनकर तुम
— आँखों में बस गई एक याद बनकर।
जी आर कवियुर
02 08.2025
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