चाय का प्याला और अख़बार,
देते थे खुशियों के उपहार,
आज उन्हें बदल दिया है,
चमकते पर्दों ने बार–बार।
बैठें या फिर सोते हों हम,
हाथों में बस यही संग्राम।
राह बदलती, सपने खोते,
मानव मूल्यों के दीप बुझे,
रिश्ते बन गए बस एक नाम।
चाय की गरमी भी अब तो,
दिल को ठंडक दे नहीं पाती।
शब्द बने बस छोटी पोस्टें,
मुस्कानें चिन्हों में सिमट जाती।
क्या काग़ज़ की स्याही महके,
एक पुराने दौर की तरह?
क्या लौटाएँ वही दिन फिर से,
मानवता की वो रौशनी?
जी आर कवियुर
28 08 2025
(कनाडा, टोरंटो)
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