अष्टमुड़ी की लहरें कविता-सी गुनगुनाती,
“वर्ड्सवर्थ” की सोच की तरह नरम।
नारियल की छाया जल पर गिरती,
कवि का सपना बनकर मौन ठहरती।
एक अकेली नाव स्मृति-सी बहती,
उसकी पतवार झील पर कविताएँ लिखती।
मैं खड़ा हूँ टोरंटो की नीली झील किनारे,
जहाँ कवियों ने भी लहरों में संगीत उतारा।
पर वहाँ, केरल की उस संध्या में,
बगुले गाते हैं बीते प्रेम की तान।
हर ज्वार लौट आता है कहानियों के साथ,
जैसे चाँद पढ़े कोई पुरानी किताब।
जी आर कवियुर
22 08 2025
(कनाडा, टोरंटो)
No comments:
Post a Comment