थका हूँ सफर से, नींद भी नाराज़ है,
हर घड़ी जैसे सदी बनकर आज है।
पलकों पे बोझ है, मन में धुंध छाई,
पर दिल की लौ अब भी बुझी नहीं भाई।
सर्द सीटों पे पसरा है तन का दर्द,
पर भीतर कहीं चुपके मुस्कुराता है अर्थ।
सोचता हूँ उस हँसी को जो मुझे देखेगी,
उस गले को जो बिना शब्दों कुछ कहेगी।
जब अपनों की आंखों में जलेगा उजाला,
ये थकान भी लगेगी इक मीठा प्याला।
हर मील, हर लम्हा होगा बस एक बहाना,
ताकि पहुंचूं उस दिल तक... जो है मेरा ठिकाना।
जी आर कवियुर
02 08 2025
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