Sunday, August 10, 2025

विनाश

विनाश

लपटें उठीं, रात लाल हो जाती,
दीवारें गिरतीं, गलियाँ फैल जातीं।

धुआँ ढके नभ, तारे फीके पड़ते,
रोती हवाएँ भारी कथा गढ़ते।

सागर किनारों से आगे गरजते,
वन गिरते, साँसें सदा को रुकते।

बिजली की गड़गड़ में पर्वत टूटते,
राख घर-घर की चौखट छूते।

धूल से फिर नई जड़ें उग आतीं,
आँसू अँधेरा नभ साफ़ कर जाते।

दुख घटता, घाव सुकून में सोते,
समय सिखाता क्या खोने में होते।

जी आर कवियुर 
10 08 2025
कनाडा,टोरंटो 

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