Saturday, May 24, 2025

पुराने आंगन, नई दीवारें

पुराने आंगन, नई दीवारें 

कभी हम रहते थे रिश्तेदारों संग,
प्यार और अपनापन था हर रंग।
एक ही छत के नीचे बिताते दिन,
दादी की कहानियाँ, दादाजी की मुस्कानें – 
जैसे त्योहारों का उजाला हर क्षण।

दरवाज़े पर बैठा था कुत्ता,
आग के पास सोती थी बिल्ली,
हंसी और आँसू कभी थकते नहीं थे।
मंदिर की ध्वनि, फूलों की दुकान,
चूड़ियाँ, सिंदूर और मेले की शान –
क्या अद्भुत दिन थे वो, जान।

तब हम प्यार करते थे,
बिना जाने कि प्यार क्या है।
झगड़ों में, आम बाँटते समय,
"मैं तुमसे प्यार करता हूँ" नहीं कहते थे,
पर आँखों से दिल की बात होती थी।

फिर आया टीवी, और चुप्पी बढ़ गई,
पहचाने चेहरे मोबाइल की चमक में खो गए।
साथ बैठे भी जैसे दूर थे हम,
धड़कते दिल की जगह 
स्क्रीन बन गई जीवन का ग़म।

अब प्यार के लिए ऐप्स हैं,
शब्द जल्दी से कहे जाते हैं।
पर सच्चा रिश्ता मिलना मुश्किल है।
जब प्यार जुदाई बन जाए,
तो दिल बूढ़ा हो जाता है जवानी में भी।

अब आम के पेड़ पर झूले नहीं हैं,
सिर्फ़ स्क्रीन है सामने कहीं।
अब रहते हैं हम फ्लैट्स में, ऊँचे और तंग,
दीवारों के पीछे, जैसे कोई बंद जीवन संग।


जी. आर. कवियूर
24-05-2025

No comments:

Post a Comment