नदी धीरे-धीरे बहती है,
पहाड़ों और खेतों से गुजरती है।
जैसे बच्चा जन्म लेता है,
वैसे ही यह धरती को छूती है।
रास्ते में पत्थर आएं तो क्या,
हर मोड़ पर बढ़ती रहती है।
घुमावों में भी यह न रुके,
अपने सफर को खुद ही सीखे।
सपनों को लेकर चलती जाती,
हर दिल से मिलने की चाह में।
आखिर में सागर से जा मिलती,
जैसे जीवन शांति को पाता।
जी आर कवियुर
२८ ०५ २०२५
No comments:
Post a Comment