खामोश रात में फुसफुसाहटें उठती हैं,
शांत भय से छायाएँ हिलती हैं।
जब संदेह शुरू होता है तो शांति छिप जाती है,
अंदर ही अंदर लड़ाई छिड़ जाती है।
खामोश तूफान, कोई नहीं देख सकता,
स्मृति की चाबी से बनी जंजीरें।
जहाँ चिंताएँ बढ़ती हैं, वहाँ खुशी फीकी पड़ जाती है,
आंतरिक प्रवाह में शांति खो जाती है।
सत्य दर्पण की निगाह में झुक जाता है,
आशा मानसिक धुंध में मंद पड़ जाती है।
स्वतंत्रता भूलभुलैया से परे होती है,
जब शांति मन के अंधेरे को रोशन करती है
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जी आर कवियुर
२३ ०५ २०२५
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