सिंदूर की रेखा और संध्या दीप,
सपनों और अर्थों में मैंने उसे खोजा।
ललाट पर कुमकुम की सजावट,
आशा के सूर्योदय की तरह मेरा परिचय बनी।
पहलगाम की हिमधुंध में विलीन होकर,
प्रेम की मुस्कानें आंसुओं में बह गईं, चेतना खो बैठी।
आतंक की अग्नि में पक्षी भी रो पड़े,
सपने टूटे, गालों से मुस्कान मिट गई।
क्षति की छाया में वह फीकी पड़ गई,
पीड़ा की हवा में उड़ गया वह रंग।
जब सोचती हूँ कि सूर्योदय अब नहीं,
रक्तरंजित एक बिंदु सिंदूर,
देश के लिए बन गया सत्य।
जी आर कवियुर
२४ ०५ २०२५
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