Thursday, May 15, 2025

तु कहा हो?!!

 तु कहा हो?!!


कविता कितनी पुरानी होगी?

क्या वो समय था जब जंगल का शिकारी तीर चलाता था?

या अंधेरी गुफाओं से वो आंसू बनकर निकली थी?


क्या वो खारी पीड़ा से भरी थी, या शहद जैसी मीठी?

क्या वो तितलियों जैसी सुंदर थी,

या जैसे ढोलक और मधुमक्खियाँ मिलकर गा रही हों,

पहले प्यार जैसी कोई अनुभूति?


कोई नहीं जानता...

कविता बस अपने ‘क’ और ‘विता’ के साथ,

भीड़ के बिना, चुपचाप अंकुरित हुई।


उसे पकड़ना मुश्किल है,

वो आँखों में आधी, और खामोशी में आधी होती है।

शब्दों से परे, दर्द के पास,

एक अनकहा संगीत बन गई है।


जड़ें जैसे खिसकती हैं वैसे ही वो भागती है,

शब्द जोड़ो तो टूट जाते हैं।

वो बस सोच में लटकी रहती है,

एक याद बनकर आती है और बिना बताकर चली जाती है।


जब उसे गाने की कोशिश करो, वो शांत हो जाती है।

उसे नाम की जरूरत नहीं,

वो सिर्फ एक छाया है, एक साथ चलने वाली।


हमेशा साथ रहेगी —

अगर किसी दिन मैं न रहूं,

तो भी कविता बनी रहेगी।


जी आर कवियुर 

१६ ०५ २०२५

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