अशोक के वृक्ष तले, लंका की भूमि पर,
बैठी सीता, व्याकुल मन, व्यथा से भार।
हर पत्ते में अश्रु, हर छाया में त्रास,
रघुकुल की राजकुमारी, कर रही निवास।
हर पल प्रिय की स्मृतियाँ, हर क्षण असह्य पीड़ा,
राम के वियोग में, मन हुआ है क्रीड़ा।
अग्नि परीक्षा की चिंता, अब न करती भय,
धरती की बेटी हूँ, सहेगी सब यही।
वनवास के दिन भी, मन में जोश था,
संग राम के वन में, जीवन मधुमय था।
अब यह विरह की वेदना, चीर रही है मन,
लंका की इस कैद में, हो रहा जीवन दहन।
पृथ्वी माँ की गोद में, जिस तरह मैं सजीव,
वैसे ही राम के बिना, मैं हूँ अधीर।
हर रोज़ सूर्य की किरण, देती एक आशा,
कि आएंगे मेरे राम, हरेंगे यह निराशा।
राक्षसों के बीच में, मन में है विश्वास,
धरती के इस भार को, हर लेंगे रामदास।
चुनौतियों के बावजूद, है धीरज का सहारा,
आएंगे मेरे राम, है यह सच्चा नारा।
जी आर कवियूर
17 07 2024
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