धरती से जन्मा, समय ने सँवारा,
चमकने की चाह ने सफ़र उबारा।
सपनों की नदियाँ, बहती अनंत,
आशा-संशय चलते संग-संग।
हाथों से रचना, आँखों से खोज,
पग डगमगाएँ, फिर भी हो प्रबोध।
शब्द मिट सकते, कर्म रह जाते,
जीवन की गहराई वही बतलाते।
सिर्फ़ बल नहीं, हृदय भी माने,
मौन के संकेतों में सत्य ठाने।
जलती लौ जो बुझती नहीं,
खुले मन से चलता वही — मनुष्य वही।
जी आर कवियुर
30 06 2025
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