दूर कहीं चुपचाप जली एक स्मृति,
भूली हुई रेत पर चमकी एक अग्नि की रेखा।
मरुस्थल में भी भीतर कहीं गर्मी बसी है,
स्पर्श के बिना जलता रहा इंतज़ार का प्यासा पल।
क्या वो प्यार था जो अंगारे सा रुका रहा — या बस प्यास?
शब्दों से परे कठोरता की एक धुन।
हवा भी मुझसे गुज़रने से डरती है,
चाँदनी में भी एक न मिटने वाला अंधेरा छिपा है।
हर मुस्कान के पीछे छिपा है पीड़ा का उजाला,
अनजाने में आत्मसमर्पण — जो जला सकता है।
सर्दी और गर्मी के बीच सच्चाई अंगारे सी दमकती है,
भूल से परे एक अंतिम शब्द — ज्वाला।
जी आर कवियुर
19 07 2025
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