Monday, July 28, 2025

ग़ज़ल: दर्द की हकीकत

ग़ज़ल: दर्द की हकीकत

दिल की लगी हुई प्यास बुझा न सका कोई,
हँसते हुए लबों को सजा न सका कोई।

हर रोज़ बिछड़ने की कहानी है फ़िज़ाओं में,
पर किसी ने दर्द को अश्क़ बना न सका कोई।

ख़ुशबू की तरह बिखरे तेरे यादों के आलम,
लेकिन उस महक को समेटा न सका कोई।

साया भी मेरा मुझसे डरने लगा है अब,
इतना तन्हा कर गया, समझा न सका कोई।

तस्वीर में हँसी है, मगर आँखें हैं भीगी,
इस छलावे को अब तक पढ़ा न सका कोई।

हर शेर में है दर्द, ये कहता है 'जी. आर.',
पर दर्द की हकीकत दिखा न सका कोई।

जी. आर. कवियुर 
28 07 2025

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