कहने की इच्छा है फिर भी,
दर्द के साथ चुपचाप हट जाता हूँ,
जनम भर की पीड़ा को ढोता हूँ।
मालाएँ और परंपराएँ जैसे बदलती हैं,
मैं भी दीवारें बनाता हूँ भीतर —
कला की ये धरोहर ना कभी फीकी पड़े।
मिठास और कड़वाहट से भरी हुई,
कुछ अनभुली मुलाकातें इस राह में,
शब्दों से उन्हें पहचानता हूँ, लेकिन...
मौन ही सबसे प्रिय है मुझे,
ऋषि की तरह जब चलता हूँ,
वही मौन एक मधुर अनुभव बन जाता है।
जी आर कवियूर
22.07.2025
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