भारत के – एक यात्रा वसंत पर्वों की"
कण्णी के दर्शन से होता है शुभ प्रभात का आग़ाज़,
दीप, फल और फूलों से भरता हर मन का राज़।
सोने जैसा सूरज उगता, खेतों में हरियाली छाए,
घर-आँगन में प्रेम बिखेरे, जब विशु की बेला आए।
परिवार संग नववर्ष मनाएं, मंगल संदेश लाए।
इलाई पर सजे पकवान, कांसे की थाली मुस्काए,
कोलम रचें शुभ चिन्ह, जब नव पुथांडु आए।
तमिल मन में उमंग हो, जैसे कावेरी की धार,
आस्था, प्रेम, परंपरा से सजे हर त्यौहार।
हर मुख पर हो मुस्कान, हर दिल में हो त्योहार।
शक्कर-नींबू-केले संग बनता है ठंडा पना,
उड़ीसा के हर द्वार बजे नवसंक्रांति का सपना।
पवन में बहे शांति का गीत, जल में घुले मधुर भाव,
सूर्य की पहली किरण संग हो, आत्मा का अभिषेक-प्रभाव।
धरती बोले, "पवित्र हो तू", प्रेम की हो पुकार।
"शुभो नबोबर्षो!" की गूंज से उठे कोलकाता का राग,
रसगुल्ले से मीठे दिन हों, प्रेम से भरे सबके भाग।
नए बहीखाते खुलें, पुराने गिले मिटें,
कला, संगीत, मिठास में, बंगाल सजे हर क्षण।
नववर्ष का स्वागत हो, जैसे बसंत का आगमन।
पहाड़ी हवा में गूंजे जब साजिबू के स्वर,
मणिपुर के हर आँगन में दिखे मधुरातम प्रहर।
परंपरा, पूजा और उत्सव, संग-संग जीवन चले,
चावल और फूलों से सजे, मंगल की बातें कहे।
नवचेतना की सुबह में, पूर्व का हृदय खिले।
ढोल-पीपा की ताल पे जब रोंगाली गीत सजते,
रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर, नर-नारी झूमते।
गांवों में नवजीवन के स्वर, खेतों में गूंजते जयकार,
भोगाली से बिहू तक बहता है उल्लास अपार।
असम का हर कोना बोले, प्रकृति से प्यार करो यार।
जब सरसों से खेतों में सोना बरसता जाए,
भांगड़ा-गिद्दा की धुन पर पंजाब नाचे गाए।
गुरुद्वारों में लंगर बंटे, सेवा में झुके सिर,
फसलें हों या भाईचारा, सबका हो तक़दीर।
बैसाखी की रौनक में, झलके गुरुओं की तसवीर।
अलग-अलग भाषाएं हों, पर दिल की बोली एक,
त्योहारों के सुर में झलके, भारत माता की टेक।
माटी, पर्व, और प्रार्थना में बंधे हम एक सूत्र में,
"वसुधैव कुटुम्बकम्" का दर्शन हो हर संस्कृति के तंत्र में।
यह विविधता ही तो है, जो भारत को बनाती अनंत में।
जी आर कवियूर
(जी रघुनाथ)
08-04-2025