जब हम पूछते हैं "क्या मैं कर सकता हूँ?" तो राहें धुंधली सी लगती हैं,
डर की हवा में भीगे सपने पीछे छिप जाते हैं।
"मैं कर सकता हूँ" कहना एक रौशनी बन जाता है,
यह सोच की गहराई में ताकत भर देता है।
हम हमेशा विचारों को सपना बनाने की जल्दी में रहते हैं,
डर की गरज में भटकना नहीं चाहिए।
शक्ति हमारे भीतर ही है — इसे समझना जरूरी है,
निराशा को आत्मविश्वास से हराओ।
"क्या मैं कर सकता हूँ?" जैसे संदेह के पीछे हम नहीं,
हम हैं "मैं कर सकता हूँ" की आत्मशक्ति।
एक बार निर्णय ले लिया तो रास्ते खुलने लगते हैं,
शब्द की ताकत को समझने वाला वह पल खास बन जाता है।
जी आर कवियूर
२३ ०४ २०२५
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