क्या मौन अब एक सागर बनता जा रहा है?
जब जीवन की धार में मैं बहता हूँ,
क्या मृत्यु में रक्त की भीनी सी गंध है?
डर और उम्मीदें आमने-सामने खड़ी हैं।
इंद्रधनुष के रंग अब फीके लगते हैं,
सपनों की छाया धुंधली होती जाती है,
प्रेम कुछ दूर, ओझल सा लगता है —
दिल थककर चुप न हो जाए कहीं?
जब मुस्कान में पीड़ा का रंग घुल जाए,
मन एक आह से हल्का होना चाहता है।
स्मृतियों की लहरों में गहराई तक डूबा,
मैं अनंत के पथ पर भटक रहा हूँ,
खुद को — उस पहेली को — पहचानने की कोशिश में।
— जी. आर. कवियूर
20-04-2025
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