प्रेम की संध्या में फैली
तेरी वचन में मैं चांदनी बनकर आई।
मन की माटी की वीणा से निकली
संगीत रूपी तू मेरा सहारा है।
हर प्रेम राग में तेरा रूप,
मन की खिड़की में प्रतिदिन
तेरी सुंदरता से सजी
सपने जागते और खो जाते हैं।
फूलों की तरह खिलता है अंतर,
हवा बनकर तितलियाँ हंसती हैं संग मेरे।
आंसू पोंछे हुए आंखें जब चमकती हैं,
तब तू मुझमें प्रेम बनकर समा जाती है।
जी आर कवियूर
14 - 02 -2025
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